राजा परीक्षित हिंदू धर्म के महान योद्धाओं और शासकों में से एक माने जाते हैं। उनकी कहानी कर्म के फल, भक्ति और मोक्ष के महत्व को समझाती है। परीक्षित के जीवन की घटनाएं न केवल उनके शासनकाल को दर्शाती हैं, बल्कि उनके कर्म और भक्ति की यात्रा का वर्णन करती हैं। इस ब्लॉग में हम राजा परीक्षित की कहानी और उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को जानेंगे, जो आज भी हमें धर्म, कर्म और मोक्ष के महत्व को समझने में मदद करते हैं।
परीक्षित अर्जुन के पोते और अभिमन्यु के पुत्र थे। वह कुरु वंश के अंतिम राजा माने जाते हैं।
परीक्षित का जन्म
राजा परीक्षित का जन्म महान पांडवों के वंश में हुआ था। वह अर्जुन के पोते और अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र थे। महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु की वीरगति के बाद, जब उत्तरा गर्भवती थीं, तब उनके गर्भ में परीक्षित थे। युद्ध के अंतिम दिनों में, अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे बालक को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा था।
तब भगवान कृष्ण ने हस्तक्षेप कर उस ब्रह्मास्त्र को निष्क्रिय कर दिया और परीक्षित को बचा लिया। इस तरह परीक्षित का जन्म भगवान कृष्ण के आशीर्वाद से हुआ, और उन्हें बचपन से ही एक दिव्य बालक माना गया।
राजा परीक्षित का राज्य
जैसे-जैसे राजा बड़े हुए, उन्होंने अपने परदादा युधिष्ठिर से राज्य का सिंहासन प्राप्त किया। युधिष्ठिर ने तपस्या और ध्यान में अपना जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया था, जिसके बाद परीक्षित को राजगद्दी सौंपी गई। उनका शासन काल एक महत्वपूर्ण दौर था, क्योंकि यह कली युग की शुरुआत का समय था, जिसे हिंदू धर्म में अंधकार और अधर्म का युग माना जाता है।
हालांकि कली युग का आरंभ हो चुका था, फिर भी उन्होंने धर्म का पालन करते हुए अपने राज्य में न्याय और शांति को बनाए रखा। उनके शासनकाल में राज्य में समृद्धि और सुख का माहौल था, और प्रजा उनसे अत्यधिक प्रेम और सम्मान करती थी।
परीक्षित को श्राप
राजा परीक्षित के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उन्होंने अज्ञानवश एक ऋषि का अपमान कर दिया। एक दिन, जब राजा जंगल में शिकार कर रहे थे, तब उन्हें अत्यधिक प्यास लगी। वे एक आश्रम में पहुंचे जहां शमीक ऋषि ध्यान में लीन थे। परीक्षित ने पानी की मांग की, परंतु ऋषि गहरे ध्यान में होने के कारण उनकी बात नहीं सुन सके।
इससे क्रोधित होकर परीक्षित ने एक मरे हुए सांप को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। जब ऋषि के पुत्र शृंगी को यह बात पता चली, तो उन्होंने गुस्से में राजा परीक्षित को श्राप दे दिया कि सात दिन के भीतर एक विषैला सांप उन्हें डस लेगा और उनकी मृत्यु हो जाएगी।
जब परीक्षित को यह श्राप मिला, तो उन्होंने अपनी गलती का गहरा पश्चाताप किया और अपनी नियति को स्वीकार किया। उन्होंने समझा कि यह उनके कर्म का फल था और अब उन्हें मोक्ष की ओर अग्रसर होना है।
भागवत पुराण का श्रवण
श्राप के बाद, परीक्षित ने अपना राज्य और सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर दिया और गंगा नदी के किनारे ध्यान और तपस्या करने लगे। उन्होंने अपने शेष जीवन को धर्म और ज्ञान की प्राप्ति में लगाने का निश्चय किया। इस समय, महान ऋषि शुकदेव (महर्षि वेदव्यास के पुत्र) वहां पहुंचे और परीक्षित को भागवत पुराण सुनाने लगे।
उन्होंने सात दिन और सात रातों तक भागवत पुराण का श्रवण किया, जिसमें भगवान कृष्ण और भगवान विष्णु के अवतारों की कहानियां और धर्म का गूढ़ ज्ञान समाहित था। इस कथा के माध्यम से परीक्षित को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने जीवन की क्षणभंगुरता को समझा।
भागवत पुराण में भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग बताया गया है, और इस कथा को सुनते हुए उन्होंने अपनी मृत्यु के भय से मुक्त होकर पूर्ण शांति प्राप्त की।
भागवत पुराण के श्रवण से परीक्षित को मोक्ष की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में आत्मज्ञान प्राप्त किया।
परीक्षित की मृत्यु
परीक्षित को ऋषि शृंगी के श्राप के कारण तक्षक नामक सर्प ने सात दिन बाद डस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। सातवें दिन, श्राप के अनुसार, तक्षक नामक एक विशाल सर्प ने परीक्षित को डस लिया। इसके बाद, राजा उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन वे इस संसार को आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्त कर के छोड़ गए। उन्होंने जीवन के अंतिम क्षणों में जो भक्ति और श्रद्धा दिखाई, वह हर भक्त के लिए प्रेरणादायक है।
परीक्षित की मृत्यु के बाद
राजा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जनमेजय ने राज्य का कार्यभार संभाला। अपने पिता की असमय मृत्यु से व्यथित होकर, जनमेजय ने एक विशाल सर्प यज्ञ (नाग यज्ञ) का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी सर्पों का विनाश करने का निर्णय लिया, ताकि तक्षक का भी अंत हो सके। हालांकि, आस्तिक नामक एक ऋषि ने इस यज्ञ को समय पर रोककर सभी सर्पों का संहार होने से बचाया। परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने उनके बाद कुरु राज्य का कार्यभार संभाला।
परीक्षित की कहानी हमें जीवन के क्षणभंगुरता, कर्म के प्रभाव और भक्ति के महत्व का मूल्य सिखाती है। उनका जीवन और मृत्यु हमें सिखाते हैं कि भक्ति और आत्मज्ञान से हम अपने जीवन के अंत में शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
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