महाभारत में भिष्म पितामह एक ऐसी प्रमुख हस्ती हैं, जिनका योगदान और जीवन हमें सच्चाई, बलिदान और कर्तव्य की सीख देता है। भिष्म का असली नाम देवव्रत था, लेकिन उन्हें भिष्म नाम उनकी महान प्रतिज्ञा के कारण मिला। यह प्रतिज्ञा न केवल महाभारत के कथा की दिशा बदलती है, बल्कि यह हमें त्याग और धर्म के प्रति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस ब्लॉग में हम भिष्म के जीवन की कहानी और उनकी महानता पर चर्चा करेंगे, जो “भिष्म” शब्द को अमर बनाती है।
भिष्म का जन्म
उनका जन्म एक महान वंश में हुआ था। वे राजा शांतनु और गंगा के पुत्र थे। उनकी माता गंगा उन्हें अपने साथ लेकर स्वर्ग चली गई थीं, जब वह छोटे थे। भिष्म ने अपने जीवन का अधिकांश भाग अपने पिता शांतनु के साथ बिताया और अपने पिता के लिए एक आदर्श पुत्र बने। वे अपने ज्ञान, साहस और युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध थे।
महान प्रतिज्ञा
उनका जीवन बदलने वाली घटना तब हुई जब राजा शांतनु ने एक मछुआरे की पुत्री सत्यवती से विवाह करने की इच्छा जताई। सत्यवती के पिता ने इस विवाह के लिए यह शर्त रखी कि सत्यवती के पुत्र ही हस्तिनापुर के राजा बनेंगे। यह सुनकर भिष्म ने एक महान प्रतिज्ञा ली कि वे न केवल सिंहासन के अधिकार से दूर रहेंगे, बल्कि वे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे ताकि उनकी संतानें भी कभी राज्य के दावे में न आएं। उनकी इस प्रतिज्ञा ने उन्हें “भिष्म” नाम दिया, जिसका अर्थ है “भीषण” या “भयानक”, क्योंकि इस तरह की प्रतिज्ञा लेना किसी भी योद्धा के लिए असाधारण था।
महाभारत में भूमिका
महाभारत के युद्ध में भिष्म कौरवों के पक्ष में लड़े, हालांकि वे पांडवों के प्रति भी प्रेम और सम्मान रखते थे। वे धर्म और कर्तव्य के पथ पर अडिग रहे, और अपने राजा और राज्य के प्रति वफादार रहे। महाभारत के युद्ध के दौरान, उनको “महायोद्धा” के रूप में जाना जाता था, और वे युद्ध में अपराजेय माने जाते थे।
कौरवों के सेनापति के रूप में, भिष्म ने कई दिनों तक युद्ध का नेतृत्व किया और पांडव सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। हालांकि, उनकी एक और प्रतिज्ञा थी कि वे पांडवों को नहीं मारेंगे, क्योंकि वे जानते थे कि पांडव धर्म के पथ पर हैं। अंततः, पांडवों के प्रमुख योद्धा अर्जुन ने शिखंडी की मदद से उनको युद्ध के मैदान में गिराया। शिखंडी, जो पहले जन्म में एक स्त्री थी, को भिष्म ने युद्ध में नहीं मारा, और इसी कारण अर्जुन ने शिखंडी की आड़ लेकर भिष्म पर तीरों की वर्षा की।
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मृत्यु शय्या पर भिष्म का ज्ञान
जब भिष्म तीरों की शय्या पर लेटे हुए थे, तो उन्होंने मृत्यु का वरण तुरंत नहीं किया। उन्हें वरदान प्राप्त था कि वे अपनी इच्छा से मृत्यु को स्वीकार सकते थे। इसलिए उन्होंने उत्तरायण के सूर्य का इंतजार किया, जो शुभ माना जाता है। इस समय के दौरान, उन्होंने युधिष्ठिर और अन्य पांडवों को धर्म, राजनीति और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर शिक्षित किया। भिष्म के ये उपदेश महाभारत के शांति पर्व में संकलित हैं।
भिष्म की विरासत
उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि कर्तव्य, धर्म और त्याग का क्या महत्व होता है। उन्होंने अपने जीवन को व्यक्तिगत सुख और इच्छाओं से ऊपर उठाकर एक महान लक्ष्य के लिए समर्पित किया। भले ही वे कौरवों के पक्ष में लड़े, लेकिन उनका हृदय हमेशा धर्म और सत्य के लिए धड़कता रहा। भिष्म की प्रतिज्ञा, उनका त्याग और उनकी युद्ध कला आज भी उन्हें एक आदर्श योद्धा और धर्मनिष्ठ व्यक्ति के रूप में स्थापित करते हैं।
उनकी कहानी महाभारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, और उनकी महानता हमें सिखाती है कि सच्चे योद्धा वह होते हैं जो अपने धर्म और कर्तव्यों का पालन करते हैं, भले ही परिस्थितियाँ कितनी ही कठिन क्यों न हों। भिष्म का त्याग और समर्पण उन्हें न केवल एक महान योद्धा बनाता है, बल्कि एक अद्वितीय व्यक्तित्व भी, जिसकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं।
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